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Tuesday, January 22, 2008

छः साल खौफ के साए में......


मुंबई की एक अदालत ने 2002 में गुजरात दंगों के दौरान बिलक़ीस बानो के साथ बलात्कार मामले में 11 लोगों को उम्र क़ैद की सुनाई , हालाँकि अपराध की जघन्‍यता के बरक्‍स यह सजा बहुत कम है, लेकिन फिर भी जहाँ न्‍याय की आस में अदालतों के चक्‍कर लगाते हुए पूरी उम्र गुजर जाती है, वहाँ यह अवधि और अंतत: बिलकिस के पक्ष में हुआ न्‍याय थोड़ी राहत और सुकून तो देता है और इस देश की न्‍याय-व्‍यवस्‍था में हल्‍का-सा यकीन भी। आज से छ: साल पहले गुजरात दंगों के समय 12 hinduo ने मिलकर नारे लगाते हुए एक औरत के साथ सामूहिक बलात्‍कार किया। उस समय उसके पेट में 6 माह का गर्भ था। वह अकेली नहीं थी, जिसके साथ धर्म के नाम पर यह दिल दहला देने वाला वाकया पेश आया। उसका पूरा परिवार था, जिसकी सभी औरतों के साथ बलात्‍कार हुआ और फिर सभी को मार डाला गया। एक अकेली वही बच गई, वह जीवट वाली औरत, जिसने हार नहीं मानी।

बिलकिस समेत परिवार की अन्‍य महिलाओं के साथ 12 लोगों ने सामूहिक बलात्‍कार किया और फिर उनकी हत्‍या कर दी। बिलकिस किसी तरह जान बचाकर भाग निकली और उसके बाद शुरू हुई यह लड़ाई, न्‍याय पाने का संघर्ष।
एक औरत, एक गरीब औरत और एक मुसलमान औरत होकर पिछड़े सामंती समाज के फिकरों, बलात्‍कार के अपमान को बर्दाश्‍त करना, लेकिन फिर भी गर्व के साथ मस्‍तक ऊँचा किए अपनी लड़ाई से हार न मानना, शायद यही कारण थे कि बिलकिस को अंतत: न्‍याय मिला। एक ऐसे देश में, जहाँ परिवारजन खुद बलात्‍कार का शिकार हुई अपनी बेटी को मौत के घाट उतार देते हैं, वहाँ बिलकिस के मानसिक संत्रास और उसके दु:खों की कल्‍पना की जा सकती है। एक ऐसा देश, ऐसा समाज, जहाँ ‘बैंडिट क्‍वीन’ जैसी बेहद दर्दनाक फिल्‍म के सबसे तकलीफदेह हिस्‍सों पर हॉल में बैठे लोग सीटी बजाते हैं, कनखियों से मुस्‍कुराते हैं। मेरे जेहन में आज भी उस फिल्‍म की स्‍मृति किसी गहरी पीड़ा के रूप में दर्ज है। इस दर्द को बिलकिस कुछ इन शब्‍दों में बयाँ करती है, ‘पिछले छः साल मैंने खौफ के साए में बिताए हैं। एक पनाहगाह से दूसरी पनाहगाह तक भागती फिरी हूँ, अपने बच्चों को अपने साथ लिए-लिए, उस नफरत से बचाने के लिए जो अभी भी मुझे पता है, कई लोगों के दिलोदिमाग में पैबस्त है। इस फैसले का मतलब नफरत का खात्मा नहीं है, लेकिन इससे यह भरोसा जागता है कि कहीं किसी तरह इन्साफ की जीत हो सकती है। यह फैसला सिर्फ़ मेरी नहीं उन सभी बेगुनाह मुसलमानों की जीत है, जिनका कत्ल कर दिया गया और उन सभी औरतों की भी, जिनकी देह इसलिए रौंद डाली गई कि मेरी तरह वे भी मुसलमान थीं।’ और यह सब उस धरती पर हुआ, जो गाँधी की विरासत से सींची गई है। और उस राम और उस धर्म के नाम पर हो रहा है, जिसके धर्मग्रंथ स्‍त्री के महिमामंडन और गौरव-गान से भरे हुए हैं। बिलकिस भंवरी देवी और मुख्‍तारन माई की याद दिलाती है, और इतिहास की उन तमाम स्त्रियों की, जिनमें सच बोलने और सच के लिए लड़ने का साहस है। जिनके फौलादी मन को पिघला सके, इतनी कूवत बड़े-से-बड़े जुल्‍म में भी नहीं है।

Thursday, January 3, 2008

उफ़! मायानगरी में ऐसी इंसानी दरिंदगी


...कोई मेरे पीठ को छू रहा था तो कोई शरीर में चिकोटी काट रहा था। मेरे कपड़े खिंचने के लिए दर्जनों हाथ हमारे करीब आते गए। भीड़ ने मेरी चचेरी ननद पर भी झपटना शुरू कर दिया। हम चिल्ला रहे थे, मेरे पति ने मुझे बचाने का प्रयास किया। उस समय भीड़ केवल चुपचाप खड़ी थी। मुझे लगता है कि मुंबई वासी मुसीबत में पड़े किसी व्यक्ति की मदद करने के इच्छुक नहीं होते। यह दर्दनाक बयान उस महिला के हैं, जो नववर्ष पर मायानगरी में इंसानी दरिंदगी की शिकार हुई। उन दो महिलाओं में से एक ने उस खतरनाक मंजर को बयान किया। किस कदर हुड़दंगियों की भीड़ ने उसे जानवरों की तरह नोचा और शर्मनाक हरकतें की। इस महिला के पति ने उस रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना का ब्यौरा दिया, जब करीब 50 लोग उसकी पत्नी और चचेरी बहन को पकड़ने का प्रयास कर रहे थे। एक अखबार को को दिए साक्षात्कार में महिला ने बताया कि मैं इस डरावनी घटना से बाहर निकलने की कोशिश कर रही हूं।

समाज का ये वो रूप है, जहाँ उपभोक्तावाद इंसान की भावनाओं से ऊपर निकल चुका है. कुछ इंसान उपभोक्तावाद की इस अंधी दौड़ में इतना तेज़ दौड़ रहे हैं कि उनको पता ही नही है कि क्या सही है और क्या ग़लत है. मुंबई जैसे महानगर,जिसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता है और जहाँ पर आज लड़कियाँ भी लड़कों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर काम कर रही हैं, ऐसे में मुंबई में हुई ये घटना बताती है कि लड़कियों के लिए कुछ मुट्ठी भर लोगो कीं सोच आज भी क्या है. जो लोग ऐसी हरकतें करते हैं वो ये भूल जाते हैं कि उनके घर में भी माँ, बेटी और बहन हैं.