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Thursday, December 31, 2009

जाने वाले साल को प्यारी सी विदाई, आने वाले साल को सलाम


हर गुजरता पल

अपने पीछे अनेक

कड़वी-मीठी अनुभूतियाँ

छोड़ जाता, जो

हमारी स्मृतियों में

संचित हो जाती हैं।

हमें हर गुजरते पल से

मोह भी होता है और

उसके जाने से राहत भी।
भविष्य हमेशा उम्मीदों

और आशाओं से भरा होता है।

इस लिए हम हमेशा

आने वाले के स्वागत

दिल खोल कर करते हैं।

तो आइये वर्ष २०१० का स्वागत

हम इन आशाओं के साथ करें

कि ये वर्ष हम सबके जीवन

में सुख-समृधि और शान्ति ले कर आए।

आप सभी को नव वर्ष हार्दिक शुभकामनाएं।


नया साल सबके लिए मंगलमय हो।


Tuesday, December 22, 2009

आठवीं अनुसूची से क्यों दूर है भोजपुरी


(अजीत दुबे) भोजपुरी हमार मां मूल मंत्र था 29-30 अगस्त 2009 को मारीशस में संपन्न हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन का, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया। उनकी एक ऐतिहासिक घोषणा कि प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने मारीशस की संसद में विधेयक पेश किया है कि अंग्रेजी और क्रियोल की भांति भोजपुरी भी राजकीय भाषा होगी ने उपस्थित 16 देशों के प्रतिनिधियों के मन में अपार गर्व और गौरव का बोध कराया। जहां एक तरफ विदेशों में भोजपुरी को इतना सम्मान मिल रहा है,वहीं भारत में आज भी यह समुचित मान्यता से वंचित है।भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा की मान्यता दी। साथ ही यह भी व्यवस्था की कि सरकार का यह दायित्व होगा कि वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास करे। इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को शुरू में शामिल किया गया। वर्ष 1967 में संविधान के इक्कीसवें संशोधन द्वारा सिंधी को लोगों की मांग के आधार पर आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इसी तरह संविधान के 71वें संशोधन द्वारा कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली और 92वें संशोधन द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे भी वही कारण बताया गया कि यह लोगों की मांग थी। ऐसी ही जोरदार मांग भोजपुरी के लिए भी होती रही है, लेकिन इस पर सरकार का ध्यान अभी तक नहीं जा सका है। सिंधी और नेपाली को किसी भी भारतीय राज्य की भाषा न होते हुए भी शामिल किया गया, लेकिन देश-विदेश में बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली और समृद्ध साहित्य वाली भोजपुरी को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर बोलने वालों की संख्या को ध्यान में रखा जाए तो उपरोक्त आठ भाषाएं भोजपुरी के आगे कहीं भी नहीं ठहरती हैं। इन आठों भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 2001 की जनगणना के मुताबिक लगभग 3 करोड़ है, जबकि भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 18 करोड़ से अधिक है। यदि बोलने वालों की संख्या की अपेक्षा मांग ही अहम है तो यह मांग भोजपुरी-भाषियों द्वारा भी लगातार होती रही है। भोजपुरी एक व्यापक और समृद्ध भाषा है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में आरंभ से ही यह भाषा स्नातक स्तर तक के पाठ््यक्रम में शामिल रही है। पटना विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद वहां भी इसे पाठ््यकय में शामिल किया गया। बिहार के कई विश्वविद्यालयों में यह आज भी पढ़ाई जाती है। गुलाम भारत में अंग्रेजों ने तो इसे आदर और सम्मान दिया, लेकिन आजादी के बाद देसी सरकार से इसे उपेक्षा और तिरस्कार के तीखे दंश ही सहने पड़ रहे हैं। गांधीवादी होने का दावा करने वाले दलों और सरकारों के लिए स्वदेशी का कोई महत्व नहीं रह गया है। चाहे वह तकनीकी हो या संस्कृति, परंपरा हो या शिक्षा-पद्धति या भाषा ही क्यों न हो। अन्यथा क्या कारण है कि मात्र 10 वर्षो के लिए काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकृत अंग्रेजी आज भी हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के सिर पर सवार है। भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2006 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल ने लोकसभा को बताया था कि केंद्र सरकार भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर विचार कर रही है। इससे दो साल पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने सदन को आश्वासन दिया था कि भोजपुरी को जल्द ही आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा। जयसवाल ने वर्ष 2007 में भी कुछ ऐसा ही बयान दिया था। आठवीं अनुसूची में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के लिए मानदंड स्थापित करने के उद्देश्य से उच्च अधिकार संपन्न एक समिति का गठन किया गया था, जिसने अप्रैल 1998 में रिपोर्ट दे दी थी। उक्त समिति ने आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए कुछ मानदंडों की अनुशंसा की थी। पहला, वह भाषा राज्य की राजभाषा हो, दूसरा, राज्य विशेष की आबादी के बड़े हिस्से द्वारा बोली जाती हो, तीसरा, साहित्य अकादमी द्वारा मान्यता प्राप्त हो और चौथा, इसका समृद्ध साहित्य हो। उपरोक्त मानदंडों पर भोजपुरी अन्य आठ भाषाओं की अपेक्षा अधिक खरी उतरती है। भोजपुरी में कई महान साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने अनेक कालजयी साहित्य की रचना की है। हिंदी भाषा के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके बाद प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं अन्य कई समकालीन साहित्यकार भोजपुरी क्षेत्र से आए हैं, जिनके लिए भोजपुरी ने प्रेरणा स्त्रोत के रूप में काम किया है। भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा जाता है। भोजपुरी के साथ कुछ अन्य भाषाओं के लिए भी मांग उठती रही है। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि यदि बहुत-सी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो रिजर्व बैंक के लिए उन सभी भाषाओं को नोट पर छापना असंभव हो जाएगा, क्योंकि नोट पर इतनी जगह नहीं है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि संघ लोक सेवा आयोग भी पर्याप्त मूलभूत सुविधा के अभाव में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा लेने में समर्थ नहीं है। ये दोनों कारण तर्कसंगत नहीं हैं। न तो आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं का नोट पर छापना अनिवार्य है और न ही सभी भाषाओं में परीक्षा लेना। इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका का उदाहरण देना समीचीन होगा। प्रारंभ में अमेरिका में 13 राज्य थे। उनके प्रतीक रूप में अमेरिकी झंडे में 13 धारियां बनाई गई, जो कि उनके प्राचीन गौरव का प्रतीक है। कालांतर में वहां राज्यों की संख्या बढ़ती गई, जिनके प्रतीक स्वरूप झंडे में सितारों को दर्शाया गया और इस तरह वर्तमान में कुल 50 राज्यों के लिए 50 तारे अमेरिकी झंडे में शोभायमान हैं। इस तरह मूल और नए राज्य, दोनों को समुचित प्रतीक के रूप में झंडे में दर्शाया गया है। रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं के समाधान के लिए अमेरिकी झंडे के उदाहरण को ध्यान में रखा जा सकता है यानी नोटों पर केवल प्रारंभिक 14 भाषाओं में ही लिखा जा सकता है और बाद में शामिल की गई भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दर्शाया जा सकता है। इसी तरह संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के बारे में निर्णय लिया जा सकता है। एक दूसरा विकल्प भी सोचा जा सकता है। बोलने वालों की संख्या के आधार पर 10 बड़ी भाषाओं का नाम ही नोटों पर लिखा जाए और अन्य भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दिखाया जाए। संघ लोक सेवा आयोग भी केवल 10 बड़ी भाषाओं को ही परीक्षा का माध्यम बनाने की व्यवस्था रखे और अन्य भाषाओं को विकल्प के रूप में मान्यता दे दे। इस तरह रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं का समाधान हो जाएगा, लेकिन केवल इसी समस्या के नाम पर भोजपुरी भाषा का विरोध करना या आठवीं अनुसूची से वंचित रखना बिल्कुल न्यायोचित नहीं है।

(लेखक भोजपुरी समाज, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

Monday, December 7, 2009

अगर एक महीने के अंदर आरोप लगाने वालों व मीडिया को नहीं निपटाया तो मैं ढाढी मुंछ मुड़वा लूंगा। आशाराम बापू ने दी खुलेआम धमकी...


अपने ऊपर लगे आरोपों से बौखलाये तथाकथित संत आशाराम बापू ने अब सरकार, पुलिस और मीडिया को ही ललकारते हुए परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। सत्संग के दौरान घड़ी-घड़ी ड्रामा करने वाले इस तथाकथित संत ने सोमवार को अपने सैकड़ों अनुवायियों को भड़काते हुए धमकी भरे अंदाज में कहा कि अगर एक महीने के अंदर आरोप लगाने वालों व मीडिया को नहीं निपटाया तो मैं ढाढी मुंछ मुड़वा लूंगा। इस संत ने खुलेआम अपने अनुवायियों को भड़काते हुए नरेंद्र मोदी की सरकार, पुलिस और मीडिया को धमकी दी है। आखिर एक महीने में यह तथाकथित संत क्या कर लेगा? आखिर यह संत अपने भक्तों की भावनाओं को भड़का कर क्या साबित करना चाहता है?जब आशाराम बापू पर कानूनी शिकंजा कस रहा है तो इनका मानसिक संतुलन खराब होता जा रहा है। उधर, आशाराम बापू के नालायक बेटे नारायण स्वामी के पूर्व सचिव ने भी आज अपनी जानमाल की रक्षा की गुहार सरकार से लगाई है। बकौल महेंद्र चावला नारायण स्वामी ने उसे जान से मारने की धमकी दी है। महेंद्र चावला का कहना है कि मुझे आशाराम और उसका नालायक बेटा मरवा देगा। इस मामले में महेंद्र चावला ने आज नारायण स्वामी पर मामला दर्ज कराया।

Sunday, December 6, 2009

आशाराम बापू का कई महिलाओं के साथ अवैध रिश्ता है। यह संत के भेष में हवस का पुजारी है। आशाराम बापू का सच..यह संत है या शैतान


आशाराम बापू का सच..यह संत है या शैतान

आशाराम बापू का कई महिलाओं के साथ अवैध रिश्ता है। यह संत के भेष में हवस का पुजारी है। आशाराम बापू को मैने आश्रम की कई साधिकाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए देखा है। यह काला जादू करता है। महिलाओं पर यह तीन-तीन घंटे तक तांत्रिक क्रिया करता है। बाद में उनमें कई के साथ शारीरिक संबंध भी बनाता है। जी, हां अपने आप को स्ंवभू भगवान मानने वाले आशाराम बापू का यह सच है। इस सच का खुलासा किया है राजू चांडक ने। राजू चांडक आशाराम का सबसे करीबी पूर्व अनुयायी है। राजू चांडक के इस खुलासे से एक बार फिर धर्म का चोला ओढ़ कर लोगों की भावनाओं से खेलने वाले पाखंडी संतों की मानसिकता उजागर हुई है। वैसे तो धर्म के नाम पर देश में तमाम चोर उचक्के संत बन कर लोगों को बेवकूफ बनाते रहते है। परंतु आशाराम जैसे तथाकथित संतों की असलियत अगर यही है तो इस देश का भगवान ही मालिक है। मैने देखा है लोगों को आंख बंद कर आशाराम के सत्संगों में दौड़ जाते है, सबसे ज्यादा दीवानगी तो महिलाओं में होती है। तो क्या..आशाराम पहले भी कई विवादों में घिरे रहे है। आशाराम के बेटे पर भी आश्रम की कई साधिकाओं के साथ यौन शोषण का आरोप लग चुका है। जुलाई २००८ में अहमदाबाद स्थित उनके आश्रम में दो छात्र रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाए गए थे। उन पर काला जादू कर तांत्रिक क्रिया किये जाने का आरोप लगा था। उस मामले में अभी भी आशाराम संदेह के घेरे में है। उनके अनुयायियों पर सूरत में जमीन हड़पने के भी आरोप हैं। पिछले माह उनके करीब 2०० अनुयायियों को एक रैली के दौरान पुलिस पर पथराव करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अपने आप को संत कहने वाले आशाराम खुलेआम मीडिया से कई बार गाली-गलौज कर चुके है। अगर वास्तव में संत का आचरण ऐसा होगा तो शैतान कैसा होगा, हम इसकी कल्पना कर सकते है।

Wednesday, December 2, 2009

आजादी की लड़ाई लड़ने वाले प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का गांव बदहाली व उपेक्षा का शिकार


दुनिया के हर देश जिस तरह अपने युगपुरुषों के धरोहरों को संजो कर रखते है, उसी तरह भारत भी अपने युगपुरुषों की धरोहरों, स्मृति और प्रतीक चिंहों को संजो कर रखे हुए है। देश ने जहां महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादूर शास्त्री आदि के समाधि, स्मृति व गांवों में बसे उनकी यादों को संजो कर संरक्षित किए हुए है, वहीं इन सभी महापुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिला कर आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का गांव बदहाली व उपेक्षा का शिकार है।
उनके पैतृक निवास को भले ही भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया है, परंतु विकास का तो यहां से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। सिवान जिला मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर दूर जीरादेई गांव में डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर 1884 को मुंशी महादेव सहाय के परिवार में हुआ था। लगभग 5 बीघा जमीन में फैले उनके इस निवास में महात्मा गांधी के ठहरने के कमरे सहित कई कमरों में खिड़की-किवाड़ तक नहीं है, जो है वो भी सड़ चुका है।
गांव के अंदर राजेंद्र बाबू का कोठी के मुख्य द्वार से बाएं तरफ एक पुराना कुंआ है। लोग बताते है कि इसी कुंए से राजेंद्र बाबू समेत उनका परिवार पानी पीता था। कुएं से आगे बाएं तरफ एक कैटल हाउस है, जो अब वीरान हो चुका है। मुख्य द्वार से दाहिनी तरफ तीन जर्जर कमरे है, जहां कभी औषधालय हुआ करता था। बिहार में नई सरकार बनने के बाद जीरादेई को प्रखंड का दर्जा दिया जा चुका है, परंतु यहां की बदहाली में कोई बदलाव नहीं आया। तमाम आश्वासनों के बावजूद गांव के एक मात्र राजेंद्र स्मारक महाविद्यालय को मान्यता नहीं मिल सकी है। इसी तरह शिक्षकों और कमरों के अभाव में राजेंद्र बाबू के बड़े भाई के नाम पर चल रहे विद्यालय की स्थिति दयनीय है। मध्य विद्यालय और कन्या विद्यालय की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है।
गांव में चिकित्सा व्यवस्था की हालत तो और भी दयनीय है। जीरादेई के मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है, जबकि छह शैय्या वाले अस्पताल के अधिकांश हिस्से पर पुलिस का कब्जा है। गांव में एक आयुर्वेदिक अस्पताल है, जिसका उद्घाटन खुद तत्कालिन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने ही किया था, परंतु वह भी अपने हालात पर आंसू बहा रहा है। भवन इतना जर्जर हो चुका है कि यह कभी भी ढह सकता है। गांव में न को कोई पुस्तकालय है, न शुद्ध पानी की कोई व्यवस्था। सड़क और बिजली की स्थिति तो बेहद दयनीय है।
यहां अशिक्षा और बेरोजगारी का आलम यह है कि युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में है। शराब बिक्री के सख्त विरोधी रहे राजेंद्र बाबू के गांव में शराब की अवैध बिक्री धड़ल्ले से हो रही है। अवैध शराब के कारोबार ने यहां की युवा पीढ़ी को बर्बादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है। देशरत्न के गांव की बदहाली पर सिवान से नवनिर्वाचित निर्दलिय सांसद ओमप्रकाश यादव भी मानते है कि राजेंद्र बाबू की जन्मस्थली सरकार की नजरों से उपेक्षित है। पहली बार सांसद बने ओमप्रकाश यादव का कहना है कि जीरादेई को एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने हेतु मैं प्रयासरत हूं। इसके लिए मुझे सरकार की तरफ से विश्वास दिलाया गया है कि केंद्र सरकार जल्द ठोस कदम उठाएगी। उनका कहना था कि पुलिस थाना के लिए जमीन अधिगृहीत हो चुका है, लेकिन फंड के अभाव में मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है। इस समस्या का भी समाधान शीघ्र हो जाएगा।
बहरहाल, देशरत्न के गांव का हाल देख कर मवेशियों का चारागाह बने राजेंद्र शिशु उद्यान में उनकी प्रतिमा के नीचे अंकित ये पक्तियां-
हारिए ना हिम्मत बिसारिए ना हरिनाम
।जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। ॥उनके चाहने वालों को जरूर थोड़ी सांत्वना देती रहती है।

**साभार ---चंदन जायसवाल- जागरण http://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_5988176/

Monday, November 9, 2009

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपराधियों पर मेहरबान


दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इन दिनों अपराधियों पर मेहरबान है। शीला दीक्षित की सिफारिश पर हाई प्रोफाइल जेसिका लाल हत्याकांड मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे मनु शर्मा को पेरोल पर रिहा किया गया है। कारण, मनु शर्मा का मन जेल में नहीं लग रहा था, उसे मौज मस्ती और अय्याशी करना था। बस..अपनी मां के झूठी बीमारी का बहाना बनाया और पहुंच गया चंडीगढ़ नाईट क्लब में ऐश करने। इस महान कार्य को अंजाम देने में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अभूतपूर्व योगदान दिया। आइये जानते है इस अभूतपूर्व योगदान की हकीकत। दरअसल मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा हरियाणा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है। हरियाणा के मुख्यमंत्री के भी करीबी है। इसका फायदा उन्होंने उठाया और शीला दीक्षित को अपने बेटे मनु शर्मा के मौज-मस्ती करने के लिए पेरोल पर रिहा करने की सिफारिश की, फिर बस क्या था, पहले मां की बीमारी का बहाना और फिर ३० दिन का पेरोल। बाद में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उसे और बढ़ाकर ६० दिन कर दिया। वाह भाई..तभी तो कहते है--मेरा भारत महान।

Saturday, August 22, 2009

देश को आडवाणी के महाझूठ का जबाब चाहिए...


गुजरात दंगो को लेकर वाजपेई बहुत ''परेशान'' थे और उन्होंने अपने संसदीय कार्यालय में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा भी लिख दिया था। उस समय संसद सत्र चल रहा था। वाजपेई ने एक कागज उठाया और इस्तीफा लिखने लगे। मैंने उनका हाथ पकड़ लिया और उन्होंने मेरी ओर सख्ती से देखा, तब मैंने कहा आप यह क्या कर रहे हैं। ऐसा मत कीजिए। उन्होंने कहा, छोड़ दो और मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया। हम उनके निवास गए। हम हालात को शांत करने में सफल हुए। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने वह वाजपेई, आडवाणी और अरूण शौरी विमान से गोवा जा रहे थे और रास्ते में गुजरात के मुख्यमंत्री को लेकर चर्चा शुरू हो गई। गुजरात का क्या करना है ?..कुछ देर खामोशी रही। उन्होंने तब कहा, गुजरात के बारे में कुछ सोचना चाहिए। इस पर आडवाणी बाथरूम की ओर चले गए। अटलजी ने कहा पूछिए उनसे फिर क्या करना है ? उन्होंने बताया कि मैंने आडवाणी जी के पास जाकर पूछा। आडवाणी जी ने सिर्फ इतना कहा 'बवाल खड़ा हो जाएगा पार्टी में।' उस दिन प्रमोद महाजन ने सदन से उन्हें फोन करके संसद स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय मुझे तुरंत आने को कहा। महाजन ने उन्हें कहा, कि 'जल्दी आईए जसवंत जी'। मैं नहीं जानता था कि हुआ क्या..। जब मैं वहां पंहुचा, मुझसे कहा गया ' संभालिए, संभालिए। इस्तीफा दे रहे हैं।' वाजपेई ने अपने सचिव को बुलाया। '' मैंने उनके सचिव से वापस जाने और अभी नहीं आने को कहा। वाजपेई सख्ती से मुझसे बोले क्या कर रहे हो।''
आडवानी का बड़ा झूठ
जब में 1999 में अपहृत विमान के यात्रियों को छुड़ाने के बदले अपने साथ तीन आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहा था तो इसके पल पल की जानकारी लालकृष्ण आडवानी को थी। सच तो ये है कि मैंने उस समय पार्टी के अपने वरिष्ठ सहयोगी को ''बचाया'' था।
यह है भाजपा से निकाले गए वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह का सनसनीखेज खुलासा। तो क्या भाजपा और इसके पीएम इन वेटिंग आडवाणी इसका जबाब देंगे। देश को आडवाणी के महा झूठ का जबाब चाहिए।
साभार ---http://biharajitpandey.blogspot.com/

Saturday, August 15, 2009

क्या आप नौकरी की तालाश में है, और अपना बायोडाटा किसी रोजगार पोर्टल पर डाल रहे है, तो सावधान हो जाइये।


क्या आप नौकरी की तालाश में है, और अपना बायोडाटा किसी रोजगार पोर्टल पर डाल रहे है, तो सावधान हो जाइये। इन दिनों पहचान चुराने वाले हैकर रोजगार के खराब हालात को नौकरियों से जुड़े पोर्टलों पर हमला करने और आवेदकों के बारे में सूचना प्राप्त करने के अवसर के रूप में उपयोग कर रहे हैं। इसके लिए एक सबटेरेनियन [भूमिगत] बाजार सक्रिय हो उठा है। इंटरनेट सीक्योरिटी कंपनी ट्रेंड माईक्रो ने कहा कि मौजूदा मंदी के बीच हैकर कार्पोरेट नौकरी वाली वेबसाइटों को अपना शिकार बना रहे हैं और आवेदकों की निजी जानकारी प्राप्त करने के लिए फर्जी साईट भी बना रहे हैं।ट्रेंड माईक्रो के उत्पाद विपणन प्रबंधक [एपेक] अभिनव कर्णवाल ने कहा कि बेरोजगारी की स्थिति बनी रहने के कारण ज्यादा से ज्यादा लोग नौकरी के लिए आनलाईन आवेदन कर रहे हैं जिसके कारण नौकरी से जुड़े पोर्टल निजी आंकड़े जुटाने का महत्वपूर्ण जरिया बन गए हैं। कर्णवाल ने कहा कि नौकरी पाने के लालच में आवेदक कंपनी द्वारा पूछी गई सारी जानकारियां आसानी दे देते हैं चाहे सामाजिक सुरक्षा नंबर हो या फिर बैंक खाता नंबर हो। इस क्षेत्र के विश्लेषकों का मानना है कि पहचान चुराने वाले और हैकर रोज-रोज बेहतर जाल तैयार कर रहे हैं ताकि रोजगार पाने के लिए लालायित लोगों को फांसा जा सके।

Wednesday, August 5, 2009

क्या हमारी शासन व्यवस्था इतनी पंगु हो गई है की.....

भारत में आज जिस तेजी से बेतहाशा जनसंख्या बढ़ रही है, वह बेहद चिंतनीय है। सबसे चिंतनीय विषय तो यह है कि इस बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि में मुख्य योगदान पाकिस्तान और बांग्लादेश से अवैध रूप आकर रह रहे नागरिको का है। आश्चर्य तो इस बात का है कि देश के तमाम राजनीतिक दल सब कुछ देखते हुए भी आंखें बंद किये हुए है। इसका कारण उनकी तुष्टिकरण नीति है, जो भारत में अवैध रूप से रह कर अपनी जनसंख्या बढ़ाने में लगे है। वह कल को उनके वोटर बनेंगे, शायद यहीं उनकी मंशा है। मैं किंचित मात्र भी मुसलमान विरोधी नहीं हूं, परंतु आज देश में जिस तेजी से इनकी जनसंख्या बढ़ रही है, और इनके कारण जो आपराधिक कारनामे बढ़ रहे है, वह किसी भी आम नागरिक को सोचने पर मजबूर कर देंगे। क्या हमारी शासन व्यवस्था इतनी पंगु हो गई है कि अवैध रूप से भारत आने वाले और रहने वाले पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों पर कोई नियंत्रण नहीं कर सकती, या सिर्फ वोट व तुष्टिकरण के लिए हम अपनी आने वाली पीढ़ी को बेरोजगारी, आतंकवाद और कई तरह के अपराधों के दलदल में झोंक देना चाहते है। हम सभी पाठकों और देशवासियों से इस महत्वपूर्ण मसले पर राय जानना चाहते है। अगर आप इस मुद्दे पर हमारे विचार से इत्तेफाक रखते है तो कृपया अपनी राय जरूर भेजे।
हमारा पता है--

अजीत पांडेयबी-9, एआरडी कांपलैक्ससेक्टर-१३

आरके पुरम नई दिल्ली-110066
ईमेल -biharajitpandey@gmail.com


एक बात और हमने सूचना अधिकार अधिनियम २००५ के तहत विदेश मंत्रालय से इस संबंध में विस्तृत जानकारी मांगी है, अगर इस विषय पर आप भी कोई जानकारी देना चाहे तो आपका स्वागत है।
निम्न बिंदूओं पर हमने आरटीआई के तहत विस्तृत जानकारी मांगी है कि--

** विगत १५ वर्षो में पाकिस्तान से वैध वीजा पर भारत में कितने लोग आये और कितने वापस गये?

** इस दौरान संबंधित मंत्रालय ने कितने लोगों को वैध पासपोर्ट व वीजा जारी किये?

** उस पर कितने लोग वापस आये और कितने लोग भारत में ही रह गए?

Wednesday, July 22, 2009

शीला जी किसकी बपौती है दिल्ली?

[अजीत पांडे] क्या दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बताएंगी की दिल्ली में बाहरी कौन है? और किसकी बपौती है यहां?कौन से वो बाहरी लोग है, जिनके दिल्ली में रहने से बिजली और पानी की किल्लत उत्पन्न हो गई है। चुनाव के दौरान तो यही शीला दीक्षित और इनके तथाकथित लोग इन्हीं बाहरी लोगों के दरवाजे पर जाकर वोट
मांगते थे, आज चुनाव जीत जाने के बाद वे ही बाहरी लोग दिल्ली पर बोझ बन गए है। वाह रे शीला जी, सत्ता में दुबारा आने के बाद तो आप गिरगिट की तरह रंग बदल रहीं हैं। आज आप जिस बाहरी लोगों (पूर्वाचल वासिंयों) को दिल्ली पर बोझ कह रहीं है, सच तो यह है कि आप इन्हीं बाहरी लोगों के बदौलत दुबारा सत्ता पर काबिज हुई है। हम आपके इस शर्मनाक बयान की तीब्र निंदा करते है। अगर आपके अंदर जरा भी नैतिकता बची हो तो आपको फौरन त्यागपत्र दे देना चाहिए। बरना आप जिन्हें बाहरी लोग कह कर बार-बार अपमानित कर रहीं है, वो अगर आपके खिलाफ खड़े हो जाए तो आपको दिल्ली छोड़ कर जाना पड़ेगा।

हमारी बात आपके साथ... अजीत पांडे
http://biharajitpandey.blogspot.com/

Friday, April 3, 2009

दैनिक जागरण ने जन जागरण के रूप में छेड़ा है अब तक का सबसे बड़ा अभियान।


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते क्या हम ये दावा कर सकते हैं कि श्रेष्ठता और आदर्श के स्तर पर भी हम उतने ही बड़े हैं? क्या हमें ये नहीं लगता कि संसद में जो दागी चेहरे दाखिल होते हैं, उसके पीछे हम भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं? क्या हमें ये नहीं सोचना चाहिए कि आखिर अनेकता में एकता की विशिष्टता वाला देश कब तक जाति और धर्म की चुनावी राजनीति की शतरंजी बिसात बना रहेगा? क्या हमें ये नहीं सोचना चाहिए कि प्रत्याशी चयन में राजनीतिक दलों की मनमानी कब तक चलती रहेगी और हमारे सामने मजबूरी रहेगी राजनीतिक स्वार्थ के धरातल पर थोपे गए उम्मीदवारों में किसी एक को चुनने की? क्या हमें ये नहीं सोचना चाहिए कि चुनाव में आपस में लड़ने वाले राजनीतिक दल चुनाव बाद सत्ता के वास्ते आपस में बंदरबांट करके एक तरह से हमारे साथ सरासर धोखाधड़ी करते हैं?
इन्ही सवालों को लेकर देश के सबसे बड़े चुनावी उत्सव को एक उचित अवसर मानकर दुनिया के सबसे अधिक पाठक संख्या वाले अखबार दैनिक जागरण ने जन जागरण के रूप में छेड़ा है अब तक का सबसे बड़ा अभियान। इस अभियान का एकमात्र उद्देश्य है चुनाव सुधार की आवाज बुलंद करना और साथ ही सबको समझदारी से वोट का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करना ताकि सचमुच बदल सके राजनीति, समाज और राष्ट्र की तस्वीर।
आपके सक्रिय-सजग सहयोग से हम सब झकझोर सकते हैं कोटि-कोटि लोगों को और उत्पन्न कर सकते हैं जन चेतना की एक ऐसी लहर जिसका आवेग ध्वस्त कर सकता है समस्त अवरोध। दैनिक जागरण के इस जन जागरण अभियान के तहत देश भर में आयोजित हो रहे हैं तमाम आयोजन, विचार गोष्ठियां, प्रभात फेरियां, जनसंपर्क आदि आदि। इस अभियान में देश के तमाम संगठनों ने, मशहूर शख्सियतों ने शिरकत करने की ठानी है।
इस आवेग को चाहिए आपका भी सहयोग। आप जहां भी हैं, जिस स्थिति में हैं, इस राष्ट्रयज्ञ रूपी महा अभियान में अपना योगदान कर सकते हैं। अपने देश के लिए, अपने समाज के लिए किसी भी जागरूक नागरिक के तत्पर होने का अवसर आ गया है और इसके लिए दैनिक जागरण आपको मुहैया करा रहा है एक सशक्त माध्यम।
log ओं- हटtp://www.janjagran.co.in

Monday, March 23, 2009

बनारस में मुख्तार अंसारी बसपा के उम्मीदवार बन रहे हैं। क्या यह बनारस की जनता का अपमान नहीं?जागे बनारस और सतर्क हो जाए सारा देश...


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आपराधिक कर्म और चरित्र वाले प्रत्याशी, जिनका अच्छा-खासा इतिहास थानों में दर्ज हैं और जिनकी छवि भी दागदार है वे यदि एक बार फिर हमारे भाग्य विधाता और नीति निर्माता बन जाते हैं तो हमारे रोने-धोने और नेताओं को कोसते रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। जब यह तय है कि राजनीतिक दल दागियों को उम्मीदवार बनाने से बाज नहीं आने वाले तो फिर उन्हें सबक सिखाने में संकोच क्यों? तमाम रोष-आक्रोश और प्रतिरोध के बावजूद दागियों को चुनाव मैदान में उतारने का सिलसिला कायम होता दिख रहा है। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो कुछ कुख्यात छवि वालों की उम्मीदवारी सबसे पहले पक्की हुई है, जैसे बनारस में मुख्तार अंसारी बसपा के उम्मीदवार बन रहे हैं। क्या यह बनारस की जनता का अपमान नहीं? जागे बनारस और सतर्क हो जाए सारा देश, क्योंकि बनारस की तरह देश के अन्य अनेक चुनाव क्षेत्रों में भी एक से एक दागी चुनाव मैदान में उतरने को आतुर हैं। इससे भी भद्दी बात यह है कि राजनीतिक दल भी उन्हें जनप्रतिनिधि का तमगा पहनाने पर आमादा हैं। इसके लिए वे तरह-तरह के बहाने गढ़ रहे हैं, जैसे यह कि वे भटके हुए लोगों को सुधरने का मौका दे रहे हैं। सच तो यह है कि वे हमारी आंखों में धूल झोंककर राजनीति को मैला कर रहे हैं।
दागियों को चुनकर हम लोकतंत्र को दागदार बनाने का काम करेंगे और ऐसा काम करने के बाद संसद के सही तरह चलने और पक्ष-विपक्ष के जवाबदेह बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती। क्या यह किसी से छिपा है कि विधानमंडलों में दागी सिर्फ इसलिए बढ़ रहे हैं, क्योंकि हमारे-आपके वोट उनकी झोली में गिर रहे हैं। गलती कर रहे हैं हम और इनाम पा रहे हैं वे जिन्हें हम छंटे हुए अपराधी समझते हैं।
यही समय है चेतने, चेताने और चुनौतियों से लड़ने का
सवालों के जवाब खोजने और उन्हें हल करने का

लोकतंत्र को सार्थक सिद्ध करने और समर्थ बनाने का
वोट की वास्तविक महत्ता स्थापित करने का

बदल दीजिए देश की तस्वीर-सौ करोड़ लोगों की तकदीर
सोचिए, समझिए, आगे बढ़िए और बुलंद कीजिए अपनी आवाज

हम नहीं करेंगे
तो कौन करेगा? http://www.janjagran.co.in

अब नहीं तो कब..? एक अनोखी पहल



देश में विकास की चकाचौंध है, लेकिन क्या हर कोना चमकदार है?
देश में बड़े-बड़े नेता हैं, लेकिन क्या उनके काम भी बड़े हैं?

देश आगे बढ़ रहा है, लेकिन क्या वह सही दिशा में जा रहा है?
देश में एकता का भाव है, लेकिन क्या चहुंओर हिलोरें मारता सद्भाव है?

देश में हर संकट से लड़ने का जुनून है, लेकिन क्या हमें अपनी सुरक्षा को लेकर सुकून है?
देश युवाशक्ति से भरपूर है, लेकिन क्या वह निराशा से दूर है?

देश के लोग जान रहे हैं खुद के अधिकार, लेकिन क्या अपनी जिम्मेदारी को लेकर हैं तैयार?
हम आप सब जानते भी हैं और मानते भी कि हमारे लोकतंत्र की कमजोरियां बन गईं हैं अब बेड़ियां टूटेंगी नहीं ये आसानी से, क्योंकि तोड़ने वाले बच रहे हैं अपनी जिम्मेदारी से यही समय है चेतने, चेताने और चुनौतियों से लड़ने का सवालों के जवाब खोजने और उन्हें हल करने का
लोकतंत्र को सार्थक सिद्ध करने और समर्थ बनाने का वोट की वास्तविक महत्ता स्थापित करने का
बदल दीजिए देश की तस्वीर-सौ करोड़ लोगों की तकदीर सोचिए, समझिए, आगे बढ़िए और बुलंद कीजिए अपनी आवाज .......
हम नहीं करेंगे
तो कौन करेगा?


जी हां, मतदाताओं को जागरूक करने और उनके अधिकारों को बताने के लिए विश्व के सबसे बड़े हिंदी समाचार पत्र समूह ने एक व्यापक मतदाता जागरूकता अभियान चलाया है। यह अभियान मतदाताओं को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के लिए जागरूक करेगा। साथ ही साथ राजनीतिक दलों को सचेत भी करेगा। ..तो फिर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनिए और बदल दीजिए देश की तस्वीर और सौ करोड़ लोगों की तकदीर..आखिर हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा!!!!!!
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Tuesday, January 13, 2009

सुन लो नेताओं... सरकारी भोंपू नहीं बनेगा मीडिया


जिस तरह मनमोहन सिंह को देश का कठपुतली प्रधानमंत्री बनाया गया है, उसी तरह मीडिया को भी अपने हाथों की कठपुतली बनाने की सरकारी साजिश रची जा रही है। मीडिया पर सेंसरशिप लागू करने के लिए सरकार कुछ बेहूदा तर्क दे रही है, जिसका व्यापक पैमाने पर विरोध करने की जरूरत है। नेशनल इंट्रेस्ट के नाम पर मीडिया पर नकेल कसने की तैयारी इस सरकार की गंदी मानसिकता को उजागर करती है।

आखिर सरकार मीडिया की स्वतंत्रता से इतनी डरी क्यों है।

जहां तक मुझे लगता है, पिछले दिनों मुंबई हमले के बाद सरकार और नेताओं के खिलाफ आम लोगों में जो गुस्सा और जनाक्रोश देखा गया, उससे नेताओं समेत सरकार की भी फट गई है। यह मीडिया की ही देन थी कि आम लोग एकजुट हुए। आज सरकार मीडिया पर नियंत्रण करने की कोशिश में जुटी है, जिसका मुंहतोड़ जवाब देने के लिए मीडियाकर्मियों के साथ-साथ आम लोगों को भी आगे आना होगा।

Saturday, January 3, 2009

...आखिर कब खत्म होगी मायावती की हवस


यूपी की सीएम मायावती का जन्मदिन और पैसों की हवस न जाने अभी कितनों की जान लेगा। इस बे-शर्म मुख्यमंत्री पर किसी तरह दौलत बनाने की हवस सवार है, अभी इस के एक गुण्डा विधायक शेखर तिवारी ने औरैया के इंजीनियर मनोज कुमार गुप्ता से जन्मदिन की रंगदारी मांगी और नहींमिलने पर पीट-पीट कर मार डाला। यह मामला अभी ठंढा भी नहीं पड़ा था कि माया की हवस ने एक और जान ने ली। इस बार शिकार हुई खैरगढ़ में तैनात सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी उदयमणि पटेल की पत्नी तूलिका पटेल। बकौल पटेल-मेरी पत्नी को तो बीएसए ने मार डाला। बीएसए अल्ताफ अहमद रात्रि दस बजे तक अपने आवास पर सभी एबीएसए की बैठक लेते हैं। जब मैने उनसे अपनी पत्नी की बीमारी का हवाला देते हुये छुट्टी मांगी तो उन्होंने दो टूक कह दिया कि बहन जी (मायावती) के जन्मदिन पर उनको पांच लाख रुपये देने का टारगेट मिला है, तुम एक लाख रुपये दे दो और छुट्टी पर चले जाओ। अगर तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो भवन निर्माण प्रभारी व विद्युत ठेकेदार से लाकर दो। पत्नी ने उन्हें फोन पर सूचना दी कि तबियत ज्यादा खराब हो गई है लेकिन फिर भी बीएसए ने उनको घर नहीं जाने दिया। बैठक समाप्त होने के बाद रात्रि करीब क्0 बजे जब वह घर पहुंचा तो पत्नी दर्द से बिलख रही थी। किसी तरह डाक्टरों के पास ले गया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।