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Saturday, January 30, 2010

'इब्ने बतूता ॥ता।ता॥बगल में जूता..ता..ता..पहने तो करता है चुर्र।र्र..र्र.'



'इब्ने बतूता ॥ता।ता॥बगल में जूता..ता..ता..पहने तो करता है चुर्र।र्र..र्र.' शुक्रवार के रिलीज हुई फिल्म 'इश्किया' का यह गीत सचमुच मुझे बहुत दिलचस्प लगा। साढ़े चार मिनट की गुलजार की इस ताजा रचना को संगीत दिया है विशाल भारद्वाज ने और गाया है मिकी व सुखविंदर सिंह ने। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक व्यंग्य कविता में भी इब्ने बतूता है। उनका जूता है, लेकिन इस गीत में गुल़जार साहब कुछ दूसरी बात कह रहे हैं। बगल में जूता संभाले जिंदगी के सफर पर चलने को तैयार रहो। यहां चुर्र।र्र.र्र चलने का मजा है और फुर्र आसमान की मंजिल॥भाई मतलब लाजवाब है। आज फिल्म देखने के बाद मेरे एक दोस्त ने पूछा इब्ने बतूता का मतलब क्या है?


प्रोड्यूसर विशाल भारद्वाज, रमन मारू और डायरेक्टर अभिषेक चौबे की फिल्म की शुरुआत में ही रास्ते और मील के पत्थर ऩजर आते हैं। इन्हीं पत्थरों पर फिल्म के टाइटिल्स दिये गये हैं। फिल्म जिंदगी को एक सफर की तरह देखती-दिखाती है। इस गीत में बोल भी हैं। 'ऐ. ऐ. जिंदगी क्या ढोलक है, दोनों तरफ से बजती है ये..' इस सफर में खुशियां हैं तो मुश्किलें भी कम नहीं। गुल़जार साहब ऐसे शब्दों-मुहावरों में नये मीनिंग भर देते हैं, जो आमतौर पर कविता के लायक नहीं समझे जाते। सफर और इब्ने बतूता एक-दूसरे के पर्यायवाची है। इब्ने बतूता मोरक्को का एक ट्रैवलर था, जिनका जन्म क्फ्0ब् हुआ और वहीं क्फ्म्8 में वे सुपुर्दे खाक हुए। आधी जिंदगी यात्रायें करते हुए ही बितायी। मक्का, ईरान, बगदाद, यमन, सुमात्रा, चीन, दक्षिणी रूस, ईस्ट अफ्रीका, ब्लैक सी के किनारे बसे देश। अफगानिस्तान होते हुए वे सिंधु घाटी पहुंचे। क्फ्फ्फ्-क्फ्ब्ख् में वह हिंदुस्तान में रहे। यहां के बादशाह मुहम्मद तुगलक ने उन्हें काजी बना दिया। वैसे वह थे भी काजियों के खानदान से और इस्लामिक लॉ की पढ़ाई भी उन्होंने की थी, तो इब्ने बतूता न्याय के भी पर्याय हो सकते हैं। फिल्म तथा इस गीत के तीनों मुख्य किरदार खालू जान (नसीरूद्दीन शाह), बब्बन हुसैन (अरशद वारसी) और कृष्णा वर्मा (विद्या बालन) अपराध और न्याय के बीच जूझ रहे हैं। फिल्म के अंत में भी इब्ने बतूता का उल्लेख है और वे तीनों इब्ने बतूता की तरह जीवन की गुत्थियां सुलझाते हैं। पूरा गाना मस्ती में डूबा है। रंग-बिरंगी झंडियों से सजे गोरखपुर के एक ढाबे जैसे सेट पर तीनों सब कुछ भूलकर नाचते फुदकते हैं '..हो अगले मोड़ पर मौत खड़ी है..अरे मरने की भी क्या जल्दी है..' लव बनाम सेक्स का एक दूसरा द्वंद इस एडल्ट फिल्म में दिखाया गया है, उसने इसे कथित बोल्डनेस भी दी है। अभिषेक चौबे खुश हैं कि गंदी गालियों से भरपुर उनकी पहली फिल्म पर सेंसर की कैंची नहीं चली। हांलाकि इससे इतर गुल़जार के गीतों की रूमानियत और सहज फलसफाना अंदा़ज ज्यादा रिलीफ देता है। -'दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी.'

2 comments:

vermaji said...

वाकई, गुलजार साहब का तो कोई जवाब नहीं है उन्होंने अपनी रचना में आज के दौर में एक ऐसे शख्स [इब्ने-बतूता] को जीवित कर दिया है जिन्हें गुजरे छह सौ साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है। वह पहले भी कई रोचक गीत लिख चुके हैं। कजरारे-कजरारे और बिड़ी जलइले जैसे गीत को लिखकर आज की पीढ़ी को भी थिरकने को मजबूर कर दिया जो उन्हें गुजरा हुआ गीतकार मानते हैं। गुलजार के तराशे फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने एक और बेहतरीन फिल्म पेश की है। विशाल पहले भी माचिस, मकड़ी, मकबूल और ओमकारा जैसी बेहतरीन फिल्म बचा चुके हैं।
सुरेंद्र कुमार वर्मा

गुरप्रीत सिंह said...

सच।

मैँ आपको आमंत्रित करता हूँ......http://yuvaam.blogspot.com/p/katha.html?m=0