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Saturday, January 2, 2010

क्या भोजपुरी भाषा का विरोध करना या उसे आठवीं अनुसूची से वंचित रखना न्यायोचित है ????


29-30 अगस्त 2009 को मारीशस में संपन्न हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन का, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया। उनकी एक ऐतिहासिक घोषणा कि प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने मारीशस की संसद में विधेयक पेश किया है कि अंग्रेजी और क्रियोल की भांति भोजपुरी भी राजकीय भाषा होगी ने उपस्थित 16 देशों के प्रतिनिधियों के मन में अपार गर्व और गौरव का बोध कराया। जहां एक तरफ विदेशों में भोजपुरी को इतना सम्मान मिल रहा है,वहीं भारत में आज भी यह समुचित मान्यता से वंचित है।भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा की मान्यता दी। साथ ही यह भी व्यवस्था की कि सरकार का यह दायित्व होगा कि वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास करे। इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को शुरू में शामिल किया गया। वर्ष 1967 में संविधान के इक्कीसवें संशोधन द्वारा सिंधी को लोगों की मांग के आधार पर आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इसी तरह संविधान के 71वें संशोधन द्वारा कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली और 92वें संशोधन द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे भी वही कारण बताया गया कि यह लोगों की मांग थी। ऐसी ही जोरदार मांग भोजपुरी के लिए भी होती रही है, लेकिन इस पर सरकार का ध्यान अभी तक नहीं जा सका है। सिंधी और नेपाली को किसी भी भारतीय राज्य की भाषा न होते हुए भी शामिल किया गया, लेकिन देश-विदेश में बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली और समृद्ध साहित्य वाली भोजपुरी को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर बोलने वालों की संख्या को ध्यान में रखा जाए तो उपरोक्त आठ भाषाएं भोजपुरी के आगे कहीं भी नहीं ठहरती हैं। इन आठों भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 2001 की जनगणना के मुताबिक लगभग 3 करोड़ है, जबकि भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 18 करोड़ से अधिक है। यदि बोलने वालों की संख्या की अपेक्षा मांग ही अहम है तो यह मांग भोजपुरी-भाषियों द्वारा भी लगातार होती रही है। भोजपुरी एक व्यापक और समृद्ध भाषा है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में आरंभ से ही यह भाषा स्नातक स्तर तक के पाठ््यक्रम में शामिल रही है। पटना विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद वहां भी इसे पाठ््यकय में शामिल किया गया। बिहार के कई विश्वविद्यालयों में यह आज भी पढ़ाई जाती है। गुलाम भारत में अंग्रेजों ने तो इसे आदर और सम्मान दिया, लेकिन आजादी के बाद देसी सरकार से इसे उपेक्षा और तिरस्कार के तीखे दंश ही सहने पड़ रहे हैं। गांधीवादी होने का दावा करने वाले दलों और सरकारों के लिए स्वदेशी का कोई महत्व नहीं रह गया है। चाहे वह तकनीकी हो या संस्कृति, परंपरा हो या शिक्षा-पद्धति या भाषा ही क्यों न हो। अन्यथा क्या कारण है कि मात्र 10 वर्षो के लिए काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकृत अंग्रेजी आज भी हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के सिर पर सवार है। भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2006 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल ने लोकसभा को बताया था कि केंद्र सरकार भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर विचार कर रही है। इससे दो साल पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने सदन को आश्वासन दिया था कि भोजपुरी को जल्द ही आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा। जयसवाल ने वर्ष 2007 में भी कुछ ऐसा ही बयान दिया था। आठवीं अनुसूची में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के लिए मानदंड स्थापित करने के उद्देश्य से उच्च अधिकार संपन्न एक समिति का गठन किया गया था, जिसने अप्रैल 1998 में रिपोर्ट दे दी थी। उक्त समिति ने आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए कुछ मानदंडों की अनुशंसा की थी। पहला, वह भाषा राज्य की राजभाषा हो, दूसरा, राज्य विशेष की आबादी के बड़े हिस्से द्वारा बोली जाती हो, तीसरा, साहित्य अकादमी द्वारा मान्यता प्राप्त हो और चौथा, इसका समृद्ध साहित्य हो। उपरोक्त मानदंडों पर भोजपुरी अन्य आठ भाषाओं की अपेक्षा अधिक खरी उतरती है। भोजपुरी में कई महान साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने अनेक कालजयी साहित्य की रचना की है। हिंदी भाषा के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके बाद प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं अन्य कई समकालीन साहित्यकार भोजपुरी क्षेत्र से आए हैं, जिनके लिए भोजपुरी ने प्रेरणा स्त्रोत के रूप में काम किया है। भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा जाता है। भोजपुरी के साथ कुछ अन्य भाषाओं के लिए भी मांग उठती रही है। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि यदि बहुत-सी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो रिजर्व बैंक के लिए उन सभी भाषाओं को नोट पर छापना असंभव हो जाएगा, क्योंकि नोट पर इतनी जगह नहीं है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि संघ लोक सेवा आयोग भी पर्याप्त मूलभूत सुविधा के अभाव में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा लेने में समर्थ नहीं है। ये दोनों कारण तर्कसंगत नहीं हैं। न तो आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं का नोट पर छापना अनिवार्य है और न ही सभी भाषाओं में परीक्षा लेना। इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका का उदाहरण देना समीचीन होगा। प्रारंभ में अमेरिका में 13 राज्य थे। उनके प्रतीक रूप में अमेरिकी झंडे में 13 धारियां बनाई गई, जो कि उनके प्राचीन गौरव का प्रतीक है। कालांतर में वहां राज्यों की संख्या बढ़ती गई, जिनके प्रतीक स्वरूप झंडे में सितारों को दर्शाया गया और इस तरह वर्तमान में कुल 50 राज्यों के लिए 50 तारे अमेरिकी झंडे में शोभायमान हैं। इस तरह मूल और नए राज्य, दोनों को समुचित प्रतीक के रूप में झंडे में दर्शाया गया है। रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं के समाधान के लिए अमेरिकी झंडे के उदाहरण को ध्यान में रखा जा सकता है यानी नोटों पर केवल प्रारंभिक 14 भाषाओं में ही लिखा जा सकता है और बाद में शामिल की गई भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दर्शाया जा सकता है। इसी तरह संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के बारे में निर्णय लिया जा सकता है। एक दूसरा विकल्प भी सोचा जा सकता है। बोलने वालों की संख्या के आधार पर 10 बड़ी भाषाओं का नाम ही नोटों पर लिखा जाए और अन्य भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दिखाया जाए। संघ लोक सेवा आयोग भी केवल 10 बड़ी भाषाओं को ही परीक्षा का माध्यम बनाने की व्यवस्था रखे और अन्य भाषाओं को विकल्प के रूप में मान्यता दे दे। इस तरह रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं का समाधान हो जाएगा, लेकिन केवल इसी समस्या के नाम पर भोजपुरी भाषा का विरोध करना या आठवीं अनुसूची से वंचित रखना बिल्कुल न्यायोचित नहीं है।

(लेखक भोजपुरी समाज, दिल्ली के अध्यक्ष है- इनके ब्लॉग पर जाने के लिये क्लिक करे) http://ajitdubeydelhi.blogspot.com/

1 comment:

aarya said...

सादर वन्दे
किसी भी दशा में उचित नहीं है, मै आप से सहमत हूँ,
रत्नेश त्रिपाठी