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Thursday, October 30, 2008

अभिनव भारत राष्ट्रवादी संगठन है!




मालेगांव बम धमाके मामले में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के साथ एक संगठन का भी नाम सामने आया है। वह है अभिनव भारत। हालांकि इस संस्था से संबंधित सभी जानकारियां इंटरनेट पर उपलब्ध थीं, मगर इसका नाम सामने आने के बाद इसे हटा दिया गया है। क्या है अभिनव भारत? कौन चलाता है इसे?
आज से करीब दो साल पहले इस संगठन की स्थापना की गई। वैसे तो 'अभिनव भारत' काफी पुराना संगठन है, लेकिन इसका मौजूदा रूप महज दो साल पुराना है। संगठन की कमान गोपाल गोडसे की बेटी और नाथूराम गोडसे की भतीजी हिमानी के हाथों में है। हिमानी विनायक दामोदर सावरकर की बहू भी है। मूल रूप से एक शताब्दी पहले सावरकर द्वारा ही 'अभिनव भारत' की स्थापना की गई थी। संगठन ब्रिटिश शासन से लड़ने के लिए बनाया गया था। हिमानी बताती है कि हमने इस संगठन को पुनर्जीवित किया। पिछले कुछ दशको मे हिंदुओ के खिलाफ हो रहे अत्याचार को देखते हुए हमने इसकी जरूरत महसूस की थी। इसके बाद समान विचारधारा वाले कुछ लोग साथ आए और हमनें 2006 में इस संगठन को अस्तित्व में लाया। हिमानी कहती है कि सावरकर ने 1952 में यह कहते हुए संगठन भंग कर दिया था कि अंग्रेजो के चले जाने के साथ ही संगठन का उद्देश्य पूरा हो गया, लेकिन हिंदुओ पर अत्याचार को देखते हुए हमने इसे पुन: शुरू किया।
हिमानी सावरकर का कहना है कि हिंदुओ के प्रति अन्याय के खिलाफ हम लड़ेगे। हम किसी तरह के आतंकवाद को समर्थन नही देते, लेकिन लगे हाथ यह भी स्पष्ट कर देना चाहते है कि हिंदू अपने ऊपर हो रहे अत्याचार बर्दाश्त नही करेगे। अगर ऐसी हिंदू विरोधी घटनाएं होती रही तो इसकी प्रतिक्रिया भी जरूर दिखेगी।

Wednesday, October 29, 2008

चलों चलें गृहयुद्ध की ओर


* तमाम बिहारियों से आह्वान है कि वे निकम्मे व नपुंसक मराठियों का संहार करने के लिए तैयार रहे।
* अब बोलों हिजड़े पाटिल-हत्या के बदले हत्या।
* इतिहास गवाह है जब-जब बिहारियों पर अत्याचार हुआ है, हथियार उठाने के लिए मजबूर हुए है।
* उठों..ठाकरे और पाटिल जैसे मराठियों से इस देश को मुक्त करो। मिटा दो ऐसे अतितायियों का नामोनिशान।
* सभी उत्तर भारतीय समुदाय मराठी और महाराष्ट्र का बहिष्कार करो।
* महाराष्ट्र के सरकारी व गैर सरकारी कर्मचारी वापस आएं।
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भाइयों, ये अंश है आज के उन ब्लागरों के जो मुंबई व आसपास के हिस्सों में उत्तर भारतीयों पर बरपाये जा रहे कहर से व्यथित है। इनका गुस्सा लाजमी भी है। परन्तु क्या हम अब एक नए गृह युद्ध की तरफ नहीं बढ़ रहे है? क्या केंद्र की निकम्मी सरकार वाकई देश को गृहयुद्ध की आग में झोंकना चाहती है। अगर कांग्रेस इसी तरह गंदी राजनीति की चालें चलती रहींतो देश और समाज को तहस नहस होने से कोई नहीं बचा सकता। हमारे ब्लागर भाईयों ने जो विचार व्यक्त किए, क्या वो उचित है, अगर नहीं तो आखिर इसका समाधान क्या है?

Monday, October 27, 2008

..गोलियों का जवाब गोलियों से


..तो महाराष्ट्र का नपुंसक गृहमंत्री आर आर पाटिल गोलियों का जवाब गोलियों से देगा। मगर भाई लोगों ये मर्दानगी सिर्फ आज ही क्यों? जब मनसे के गुण्डे मुंबई में उत्तर भारतीयों पर कहर बरसाते है तो यह नपुंसक गृहमंत्री किस बिल में दुबका रहता है। सड़कों पर राज के गुण्डे जब सरेआम तांडव करते है तो महाराष्ट्र पुलिस व उसके आकाओं की मर्दानगी कहां चली जाती है। कई मुकदमों और गैर जमानती वारंट के बावजूद राज ठाकरे को गिरफ्तार करने में नाकाम रही पुलिस की आज इतनी सक्रिय कैसे हो गई? तो क्या ये मान लिया जाए कि महाराष्ट्र सरकार वोटबैंक के लिए शिखंडी बन चुकी है।मुंबई में हाल ही में पीटे गए उत्तर भारतीय रेलवे परीक्षार्थियों की आवाज बनने की इच्छा रखने वाले राहुल राज की आवाज आज मराठी पूर्वाग्रह से ग्रसित पुलिस ने दबा दी। इस अलोकतांत्रिक हादसे के बाद मुंबई का उत्तर भारतीय यह सवाल जरूर उठा रहा है कि जिस मुंबई पुलिस ने राज ठाकरे और उनके गुंडों पर विगत फरवरी माह से कोई ठोस कार्रवाई नहीं की, जबकि उनके कारण जान और माल का काफी नुकसान भी हो चुका है, वही पुलिस क्या ऐसे व्यक्ति को जिंदा पकड़ने का प्रयास नहीं कर सकती थी, जो बार-बार यह कहता रहा कि वह किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। आखिर महाराष्ट्र में बिहारियों पर अत्याचार कब तक होते रहेंगे? कब तक बिहारी ऐसी गंदी राजनीति के शिकार होते रहेंगे?

Friday, October 24, 2008

शर्म आती है हमें ऐसे मंत्री शिवराज पाटिल पर


यह हैं भारत के केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल। राजसी ठाठ बाट से रहना इनका पसंदीदा शगल है। भले ही इससे आम आदमी प्रभावित हो, लेकिन इनकों कोई फर्क नहींपड़ता। बात चाहें दिल्ली ब्लास्ट के बाद तीन घंटे में तीन सूट बदलने का हो या अहमदाबाद में घायलों का दर्द बांटने गए पाटिल का अपने जूतों को पानी से बचाने की नफासत दिखाने का। उनकी राजशाही का जवाब नहीं है। आज फिर इनकी एक कारगुजारी चर्चा में है। महज 15 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए पाटिल ने 2.77 लाख खर्च कराकर हेलीकाप्टर की सवारी की, ताकि राजधानी की भीड़भाड़ वे बच सके। आज जहां पूरा देश वैश्विक मंदी के दौर से गुजर रहा है वहां हमारे देश का एक केंद्रीय मंत्री मात्र 15 किमी की दूरी तय करने के लिए सरकारी हेलीकाप्टर की सवारी करता है।दक्षिण दिल्ली के खानपुर मे तिगरी स्थित आईटीबीपी के 47 वें स्थापना दिवस परेड समारोह में शिरकत के लिए पाटिल ने सफदरजंग हवाई अड्डे से खानपुर के लिए हेलीकाप्टर से उड़ान भरी। यही तो है हमारे पैसों का सरकारी दुरुपयोग। शर्म आती है हमें ऐसे मंत्री पर।

Wednesday, October 22, 2008

महाराष्ट्र में एक आतंकवादी की जीत


आखिरकार महाराष्ट्र में खुलेआम आतंक का तांडव करने वाला आतंकी राज ठाकरे की जीत हो ही गई। दरअसल, यह जीत मनसे या राज ठाकरे जैसे आतंकियों की नहीं, बल्कि पूरी तरह नपुंसक हो चुके महाराष्ट्र सरकार की है। महाराष्ट्र कांग्रेस के नपुंसक नेताओं ने जो राजनीति का गंदा खेल इस मवाली पार्टी और इसके कर्ताधर्ता राज ठाकरे को आगे करके खेलना शुरू किया है वह बेहद निंदनीय है और इसका खामियाजा उसे भुगतना ही पड़ेगा। पिछले दो दिनों से महाराष्ट्र में जो हो रहा है उसे पूरा देश देख रहा है। राज ठाकरे के गुण्डे जिस तरह से राज्य में समानान्तर सरकार चला रहे है और हिंसा पर हिंसा करते जा रहे है उससे महाराष्ट्र में नेताओं की नपुंसकता उजागर हो गई है। इस मामले पर अगर मनमोहन सरकार को भी नपुंसक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्या पीएम मनमोहन सिंह को अब महाराष्ट्र में राष्ट्रीय शर्म नहीं दिखता? दरअसल यह सब कांग्रेस की गंदी राजनीति एक हिस्सा है। कांग्रेस ने इससे पहले इसी तरह की गंदी राजनीति पंजाब में भी खेली थी। परिणाम सन 1984 में भारी संख्या में हिंदू-सिख दंगे हुए और इंदिरा गांधी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी, अपनी जान देकर। यहां मामला थोड़ा सा अलग है। महाराष्ट्र की राजनीति में शिव सेना की लड़खड़ाती स्थिति का फायदा विलासराव देशमुख और आर आर पाटिल जैसे शिखंडी नेता राज ठाकरे को आगे कर उठाना चाहते है। राज ठाकरे की गंदी राजनीति का इस्तेमाल जिस तरह से कांग्रेस कर रही है उसका खामियाजा आम नागरिकों को उठाना पड़ रहा है।

Tuesday, October 21, 2008

नई दुनिया..एक शर्मनाक पत्रकारिता



नई दुनिया..दिल्ली की नई सुबह अब नई दुनिया अखबार के साथ। जी हां, बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर के साथ दिल्ली में एक कथित बड़ा अखबार शुरू किया गया। दिल्ली में इस अखबार का जिम्मा संभाला एक भारी भरकम संपादक ने, नाम है आलोक मेहता। टीम भी बनी भारी भरकम नामी गिरामी पत्रकारों की, जो अपने आप में हर क्षेत्र के विशेषज्ञ माने जाते है। विगत 2 अक्टूबर को इसका बड़े धूमधाम से प्रकाशन शुरू हुआ, लगा की वरिष्ठ पत्रकारों की टीम कुछ अच्छा करेगी, मगर इस अखबार की तो जैसे हवा ही निकल गई, जब बजरंग दल के विनय कटियार का 19 अक्टूबर को साक्षात्कार छपने के बाद संपादक को उनका पत्र मिला। कम से कम इतने बड़े संपादक से तो यह आशा कत्तई नहीं थी कि वे अपने ही पत्रकार की रिपोर्ट के खिलाफ विनय कटियार का बयान प्रकाशित करें। मुझे शर्म आती है ऐसी पत्रकारिता पर। अब प्रश्न यह उठता है कि इस अखबार का कंटेंट संपादक या पत्रकार देंगे या छजवानी बंधु?

Saturday, October 18, 2008

जिंदगी फिर दोराहे पर लाकर खड़ा कर चुकी है


शामली नाम है उस लड़की का, नाम के अनुसार प्यारी सी गुड़िया..मगर वक्त और हालात ने उसकी मासूमियत को बिखेर कर रख दिया। नोएडा के एक पार्क बैठे हुए अचानक एक दिन वो मुझसे मिली। हाय..हेलो के बाद दोस्ती हुई। फिर एक दिन मैंने उसके जिंदगी के कुछ लम्हों को कुरेदा..फिर तो उसकी वो हंसी भी गायब हो गई, जो यदा-कदा मुझे दिख जाती थी। आज उसने मुझे एक पोस्ट भेजा। उस पोस्ट को उसी के शब्दों में प्रकाशित कर रहा हूं।
.....ट्रेन का लंबा सफर और मैं बिल्कुल अकेली बैठी खिड़कियों से बाहर टकटकी लगाए उन तेजी से पीछे भागते पेड़ों को निहारे जा रही थी। शायद मैं उन्हें देखकर भी नहीं देख पा रही थी, क्योंकि मैं वहां मौजूद जरूर थी पर वहां थी नहीं। जैसे मानो सब कुछ तो वहीं ठहरा है बस बदली है तो चंद समय की घडि़यां, जब मैं चली तो तीन साल पहले का समय था और आज तीन साल गुजर चुके फिर भी सब कुछ ज्यों का त्यों ही है। अचानक उसे वो गुजरे अनगिनत लम्हें याद आने लगे जिसमें खुशी से ज्यादा थी गमों की रेखाएं। जून 2005 मेरी बीकाम का रिजल्ट आ चुका था और घर में सभी लोग काफी खुश थे। मैं अच्छे अंको से परीक्षा जो उत्तीर्ण की थी। मम्मी पापा और अपने पूरे परिवार की लाडली मैं दिनभर घर में इधर से उधर उछलती कूदती रहती, कभी भैया से नोकझोंक, तो कभी भाभी से इठलाती और कभी अपने प्यारे-प्यारे भतीजे को खिलाती। घर में इतनी लाडली थी कि कोई कभी कुछ कहता ही नहीं था। पापा ने भी एकबार भी नहीं पूछा कि बेटा तुम एमकाम क्यूं नहीं करना चाहती? शायद यह उनके स्वभाव में ही शामिल नहीं था बच्चे जो करना चाहे करें बस उन्हें पैसे देने से मतलब होता था। एमकाम के फार्म की अंतिम तारिख भी गुजर गई और पापा ने एक बार फिर भी नहीं पूछा। पर मैं जानती थी कि पापा के मन में कुछ और है।उसके सपनों की उड़ान अभी बाकि थी। और कुछ ही समय घर में अभी बीते होंगे कि रिश्तेदार और पड़ोसियों की आंखों में जैसे मैं किरकिरी की तरह चुभने लगी। कब कर रहें हैं शादी, कोई लड़का देखा कि नहीं। आखिर आपको कैसे लड़के की तलाश है। कब करेंगे शादी, न जाने कितने सवाल, पर मेरी मम्मी और पापा का एक जवाब-- हमें अपनी बेटी को किसी की दासी बनाकर नहीं बिदा करना हम जब तक उसे अपने पैरों पर न खड़ा कर ले नहीं बिदा करना। सौ सवाल के एक जवाब ने कर दिया सभी को खामोश। आखिर हो भी क्यों न, मेरी दो बहनों के साथ जैसा हुआ सभी वाकिफ थे। बड़ी दीदी एक घरेलू महिला थीं जिन्हें उनके ससुराल वालों ने कितने दुख दिए, शायद वो दर्द इतने थे कि कोई भी लड़की शादी के नाम पर नफरत करने लगती और कुछ ऐसा ही हुआ शामिली के साथ भी और मैं भी शादी जैसे पवित्र बंधन से नफरत करने लगी मुझे लगता था कि जहां प्रेम न हो ऐसी शादी का क्या अर्थ और क्या मायने जिसके लिए अपना घर परिवार सबकुछ छोड़कर एक लड़की जाती है वो ही उसे वो मान सम्मान, प्रेम और अधिकार की बजाय उसपर कहर बरसाए तो आखिर वो कहां जाए। मां बाप की भी मजबूरी, कि लड़की पराया धन है उसे जब शादी के पहले नहीं रख सकते तो फिर शादी के बाद रखना तो जैसे समाज के नियम कानूनों को तोड़ना जितना अक्षम्य अपराध ही होगा। फिर भी दी ने किसी तरह नौ महीने अपनी मासूम सी बेटी के साथ गुजारे। हर पल तिल-तिल जलती और मरती रही वो और समाज था कि ताने पर ताने कसता रहा। वो इंसान कैसा था जो अपनी मासूम सी फूल सी बेटी को एक झलक देखने के बाद दोबारा कभी नहीं आया। कितना भी कोई बेरहम हो पर इतना नहीं हो सकता, जिस फूल को देखकर पत्थर भी पिघल जाता पर ये दहेज का भूखा इंसान नहीं पिघल रहा था। पर शायद उसमें इंसानियत ही नहीं थी.....दिल पर गहरी चोट दे गया था वो हादसा जो कभी न भरे शायद ऐसे जख्म थे।....और फिर मेरी दिल में भी आत्मनिर्भर बनने की महत्वाकांक्षा हिलोरे मार रही थी। उस पर से मम्मी पापा का पूरा-पूरा सहयोग मिला। पापा मैं अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हूं मैं अपने जीवन में किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती। शादी तो जिंदगी का अंत है पर मैं जिंदगी की शुरूआत करना चाहती हूं, मैं ऐसे क्षेत्र में जाना चाहती हूं जहां मैं kisi के दर्द को बांट सकूं, लोगों तक उसकी दर्द भरी आह को पहुंचा सकूं। शायद जिंदगी में अब तक जो देखा वो काफी है, फिर कभी किसी के साथ कोई अन्याय न हो। कुछ ऐसे ही सपने थे शामिली के जो उसे जिंदगी में कुछ करने को हर पल मजबूर करते थे। लेकिन इसके लिए अपनों से दूर जाना होगा। मुश्किल था शामिली के लिए, अपने परिवार से दूर रहना, वह एक दिन भी मम्मी के बिना नहीं रह पाती थी। रिश्तेदारों ने तो टकटकी लगाई थी कि कैसे रहेगी शामिली, घर से दूर। आखिर उसके सपनों के आगे परिवार का प्रेम छोटा पड़ गया और निकल पड़ी मैं घर से कुछ करने की लालसा में.... आसान न थी डगर पर फिर भी था चलने का हौसला और जिंदगी में कुछ करने की ख्वाइश। हर पल जिंदगी कुछ नए ताने बाने बुनती और कहती कि कुछ कर गुजरना है। इस बीच भी लोगों के खोखले सवाल पीछा ही करते थे। कभी दबी जुबान में बाहर भी आ जाते लेकिन अभी उसे पता था कि उसका लक्ष्य उसके सामने है उसे कुछ ऐसा करना है जो दुनिया की भीड़ से उसे अलग कर दे। देखते देखते एक और साल गुजरा और दिल्ली में उसकी पढ़ाई भी खत्म हो गई। फिर उठे वही सवाल अब नहीं करवानी नौकरी कर दो इसकी शादी, नहीं तो भेज दो वापस घर। अब तो अति हो गई जब मेरे घर वालों को मेरी नौकरी से परहेज नहीं तो गैरो को क्यूं हो भला। आंशू के साथ जिंदगी ने फिर चुना एक पथरीला रास्ता छोड़ दिया सब कुछ और निकल पड़ी अपनों से बहुत दूर किसी दूसरे प्रांत में जहां कोई उससे ऐसे बेतुके सवाल न करें और न मांगे उससे भविष्य का हिसाब। अब मैं पहले से बहुत खुश और सकून भरी जिंदगी जी रही थी क्योंकि अब मेरी जिंदगी का वो सपना साकार हो चुका था और मम्मी पापा की भी तपस्या रंग लाई थी। धीरे-धीरे एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला जैसे पर अब इस समाज में भी जहां मैं रह रही थी लोगों को वही सारी समस्याएं दिखने लगी। समाज की अपेछाएं वक्त के साथ बढ़ने लगी, लेकिन मेरी दिलों के जख्म को देखने और समझने वाला कोई नहीं था। क्यूं होती है उसे इस समाज के नुमाइंदों से नफरत शायद अब तक तो मैं भी उन्हें भुला ही चुकी थी। पर वक्त और लोगों के व्यवहारों ने फिर मुझे कुरेदना शुरू कर दिया था। एक बार फिर मुझे याद दिला दी कि कैसे जिए। आखिर कैसे बीते थे ये दो साल? अक्सर याद आती थी उस बचपन की जहां कुछ कहने से पहले ही सबकुछ मिल जाता। घर का लाड प्यार सबकुछ पर फिर सपने सब भुला देते हैं। कहीं रहने के लिए वहां दिल का लगना बहुत जरूरी है, और शायद वहां बने मित्रों के साथ दिल भी लग गया था। अचानक फिर ली जिंदगी ने एक नई करवट और एक ही दिन में उस ट्रेन के सफर की तरह मेरी जिंदगी ने रास्ता बदल दिया और छूट गए वो सारे पुराने साथी जिसकी मंजिल जहां आई वो वहीं उतर गया। शामिली का मन अब उदास सा रहना लगा, फिर नए लोग और नई दुनिया लेकिन समझने वाला कोई नहीं। धीरे-धीरे मेरी दुनिया का सामना करने की ताकत भी खत्म होने लगी। कैसे कहे कि आज मुझे वो गुजरे जमाने याद आने लगे, जिन सपनों के लिए मैं ne सबकुछ छोड़ा था वो भी अब मुझे पराए से लगने लगे। डूब सी गई वो अपनी पुरानी यादों में, साहस था कि मधम पड़ने लगा। मैं शादी नहीं करना चाहती थी पर समाज और रिश्तेदारों की जोर जर्बदस्ती मुझे कमजोर कर रही थी। जिंदगी फिर एक ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर चुकी है......मेरी

Thursday, October 9, 2008

..तो बिन सात फेरे ही होंगे हम तेरे



भाइयों और भाभियों, लिव इन रिलेशनशिप में रहने वालों के लिए एक बहुत ही अच्छी खबर है। अगर महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव पास हो गया तो फिर [कथित रूप से कुंवारे या शादीशुदा] युवक-युवतियों को बिंदास साथ-साथ रहने से कोई नहीं रोक सकता। मगर, भाई लोगों क्या यह उचित होगा? जरा कल्पना करें-अगर ऐसा हो गया तो फिर शादी जैसे पवित्र बंधन का क्या औचित्य रह जाएगा? पति-पत्नी के संवेदनशील रिश्ते कहां जाएंगे। तब शायद सामाजिक पतन की पराकाष्ठा होगी और सात फेरों का बंधन व पति-पत्नी का पवित्र रिश्ता गर्त में जाने लगेगा। कम से कम महाराष्ट्र सरकार ने तो इसका श्रीगणोश कर ही दिया है।जी हां, महाराष्ट्र विधानसभा ने लिव इन रिलेशनशिप को कानूनी जामा पहनाने के लिए एक प्रस्ताव को मंजूरी दी है। यह प्रस्ताव जस्टिस मल्लीमथ कमेटी की सिफारिशों पर आधारित है। इसमें कहा गया है कि अगर पुरुष और महिला एक उचित अवधि से एक दूसरे के साथ रह रहे है तो उन्हें एक दूसरे को शादीशुदा पति-पत्नी की तरह समझना चाहिए। यानी बिना शादी किए साथ-साथ रहने वाले युवक-युवती भी पति पत्नी का दर्जा पा सकते है। साथ ही साथ इससे बहु पत्नी प्रथा को भी बढ़ावा मिलेगा। मतलब साफ है बिन सात फेरे ही हम होंगे तेरे। फिलहाल को महाराष्ट्र विधानसभा का यह फैसला केंद्र के पास विचाराधीन भेज दिया गया है, परंतु महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले ने एक बहुत बड़े विवाद को जन्म दे दिया है।