शामली नाम है उस लड़की का, नाम के अनुसार प्यारी सी गुड़िया..मगर वक्त और हालात ने उसकी मासूमियत को बिखेर कर रख दिया। नोएडा के एक पार्क बैठे हुए अचानक एक दिन वो मुझसे मिली। हाय..हेलो के बाद दोस्ती हुई। फिर एक दिन मैंने उसके जिंदगी के कुछ लम्हों को कुरेदा..फिर तो उसकी वो हंसी भी गायब हो गई, जो यदा-कदा मुझे दिख जाती थी। आज उसने मुझे एक पोस्ट भेजा। उस पोस्ट को उसी के शब्दों में प्रकाशित कर रहा हूं।
.....ट्रेन का लंबा सफर और मैं बिल्कुल अकेली बैठी खिड़कियों से बाहर टकटकी लगाए उन तेजी से पीछे भागते पेड़ों को निहारे जा रही थी। शायद मैं उन्हें देखकर भी नहीं देख पा रही थी, क्योंकि मैं वहां मौजूद जरूर थी पर वहां थी नहीं। जैसे मानो सब कुछ तो वहीं ठहरा है बस बदली है तो चंद समय की घडि़यां, जब मैं चली तो तीन साल पहले का समय था और आज तीन साल गुजर चुके फिर भी सब कुछ ज्यों का त्यों ही है। अचानक उसे वो गुजरे अनगिनत लम्हें याद आने लगे जिसमें खुशी से ज्यादा थी गमों की रेखाएं। जून 2005 मेरी बीकाम का रिजल्ट आ चुका था और घर में सभी लोग काफी खुश थे। मैं अच्छे अंको से परीक्षा जो उत्तीर्ण की थी। मम्मी पापा और अपने पूरे परिवार की लाडली मैं दिनभर घर में इधर से उधर उछलती कूदती रहती, कभी भैया से नोकझोंक, तो कभी भाभी से इठलाती और कभी अपने प्यारे-प्यारे भतीजे को खिलाती। घर में इतनी लाडली थी कि कोई कभी कुछ कहता ही नहीं था। पापा ने भी एकबार भी नहीं पूछा कि बेटा तुम एमकाम क्यूं नहीं करना चाहती? शायद यह उनके स्वभाव में ही शामिल नहीं था बच्चे जो करना चाहे करें बस उन्हें पैसे देने से मतलब होता था। एमकाम के फार्म की अंतिम तारिख भी गुजर गई और पापा ने एक बार फिर भी नहीं पूछा। पर मैं जानती थी कि पापा के मन में कुछ और है।उसके सपनों की उड़ान अभी बाकि थी। और कुछ ही समय घर में अभी बीते होंगे कि रिश्तेदार और पड़ोसियों की आंखों में जैसे मैं किरकिरी की तरह चुभने लगी। कब कर रहें हैं शादी, कोई लड़का देखा कि नहीं। आखिर आपको कैसे लड़के की तलाश है। कब करेंगे शादी, न जाने कितने सवाल, पर मेरी मम्मी और पापा का एक जवाब-- हमें अपनी बेटी को किसी की दासी बनाकर नहीं बिदा करना हम जब तक उसे अपने पैरों पर न खड़ा कर ले नहीं बिदा करना। सौ सवाल के एक जवाब ने कर दिया सभी को खामोश। आखिर हो भी क्यों न, मेरी दो बहनों के साथ जैसा हुआ सभी वाकिफ थे। बड़ी दीदी एक घरेलू महिला थीं जिन्हें उनके ससुराल वालों ने कितने दुख दिए, शायद वो दर्द इतने थे कि कोई भी लड़की शादी के नाम पर नफरत करने लगती और कुछ ऐसा ही हुआ शामिली के साथ भी और मैं भी शादी जैसे पवित्र बंधन से नफरत करने लगी मुझे लगता था कि जहां प्रेम न हो ऐसी शादी का क्या अर्थ और क्या मायने जिसके लिए अपना घर परिवार सबकुछ छोड़कर एक लड़की जाती है वो ही उसे वो मान सम्मान, प्रेम और अधिकार की बजाय उसपर कहर बरसाए तो आखिर वो कहां जाए। मां बाप की भी मजबूरी, कि लड़की पराया धन है उसे जब शादी के पहले नहीं रख सकते तो फिर शादी के बाद रखना तो जैसे समाज के नियम कानूनों को तोड़ना जितना अक्षम्य अपराध ही होगा। फिर भी दी ने किसी तरह नौ महीने अपनी मासूम सी बेटी के साथ गुजारे। हर पल तिल-तिल जलती और मरती रही वो और समाज था कि ताने पर ताने कसता रहा। वो इंसान कैसा था जो अपनी मासूम सी फूल सी बेटी को एक झलक देखने के बाद दोबारा कभी नहीं आया। कितना भी कोई बेरहम हो पर इतना नहीं हो सकता, जिस फूल को देखकर पत्थर भी पिघल जाता पर ये दहेज का भूखा इंसान नहीं पिघल रहा था। पर शायद उसमें इंसानियत ही नहीं थी.....दिल पर गहरी चोट दे गया था वो हादसा जो कभी न भरे शायद ऐसे जख्म थे।....और फिर मेरी दिल में भी आत्मनिर्भर बनने की महत्वाकांक्षा हिलोरे मार रही थी। उस पर से मम्मी पापा का पूरा-पूरा सहयोग मिला। पापा मैं अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हूं मैं अपने जीवन में किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती। शादी तो जिंदगी का अंत है पर मैं जिंदगी की शुरूआत करना चाहती हूं, मैं ऐसे क्षेत्र में जाना चाहती हूं जहां मैं kisi के दर्द को बांट सकूं, लोगों तक उसकी दर्द भरी आह को पहुंचा सकूं। शायद जिंदगी में अब तक जो देखा वो काफी है, फिर कभी किसी के साथ कोई अन्याय न हो। कुछ ऐसे ही सपने थे शामिली के जो उसे जिंदगी में कुछ करने को हर पल मजबूर करते थे। लेकिन इसके लिए अपनों से दूर जाना होगा। मुश्किल था शामिली के लिए, अपने परिवार से दूर रहना, वह एक दिन भी मम्मी के बिना नहीं रह पाती थी। रिश्तेदारों ने तो टकटकी लगाई थी कि कैसे रहेगी शामिली, घर से दूर। आखिर उसके सपनों के आगे परिवार का प्रेम छोटा पड़ गया और निकल पड़ी मैं घर से कुछ करने की लालसा में.... आसान न थी डगर पर फिर भी था चलने का हौसला और जिंदगी में कुछ करने की ख्वाइश। हर पल जिंदगी कुछ नए ताने बाने बुनती और कहती कि कुछ कर गुजरना है। इस बीच भी लोगों के खोखले सवाल पीछा ही करते थे। कभी दबी जुबान में बाहर भी आ जाते लेकिन अभी उसे पता था कि उसका लक्ष्य उसके सामने है उसे कुछ ऐसा करना है जो दुनिया की भीड़ से उसे अलग कर दे। देखते देखते एक और साल गुजरा और दिल्ली में उसकी पढ़ाई भी खत्म हो गई। फिर उठे वही सवाल अब नहीं करवानी नौकरी कर दो इसकी शादी, नहीं तो भेज दो वापस घर। अब तो अति हो गई जब मेरे घर वालों को मेरी नौकरी से परहेज नहीं तो गैरो को क्यूं हो भला। आंशू के साथ जिंदगी ने फिर चुना एक पथरीला रास्ता छोड़ दिया सब कुछ और निकल पड़ी अपनों से बहुत दूर किसी दूसरे प्रांत में जहां कोई उससे ऐसे बेतुके सवाल न करें और न मांगे उससे भविष्य का हिसाब। अब मैं पहले से बहुत खुश और सकून भरी जिंदगी जी रही थी क्योंकि अब मेरी जिंदगी का वो सपना साकार हो चुका था और मम्मी पापा की भी तपस्या रंग लाई थी। धीरे-धीरे एक साल गुजर गया पता ही नहीं चला जैसे पर अब इस समाज में भी जहां मैं रह रही थी लोगों को वही सारी समस्याएं दिखने लगी। समाज की अपेछाएं वक्त के साथ बढ़ने लगी, लेकिन मेरी दिलों के जख्म को देखने और समझने वाला कोई नहीं था। क्यूं होती है उसे इस समाज के नुमाइंदों से नफरत शायद अब तक तो मैं भी उन्हें भुला ही चुकी थी। पर वक्त और लोगों के व्यवहारों ने फिर मुझे कुरेदना शुरू कर दिया था। एक बार फिर मुझे याद दिला दी कि कैसे जिए। आखिर कैसे बीते थे ये दो साल? अक्सर याद आती थी उस बचपन की जहां कुछ कहने से पहले ही सबकुछ मिल जाता। घर का लाड प्यार सबकुछ पर फिर सपने सब भुला देते हैं। कहीं रहने के लिए वहां दिल का लगना बहुत जरूरी है, और शायद वहां बने मित्रों के साथ दिल भी लग गया था। अचानक फिर ली जिंदगी ने एक नई करवट और एक ही दिन में उस ट्रेन के सफर की तरह मेरी जिंदगी ने रास्ता बदल दिया और छूट गए वो सारे पुराने साथी जिसकी मंजिल जहां आई वो वहीं उतर गया। शामिली का मन अब उदास सा रहना लगा, फिर नए लोग और नई दुनिया लेकिन समझने वाला कोई नहीं। धीरे-धीरे मेरी दुनिया का सामना करने की ताकत भी खत्म होने लगी। कैसे कहे कि आज मुझे वो गुजरे जमाने याद आने लगे, जिन सपनों के लिए मैं ne सबकुछ छोड़ा था वो भी अब मुझे पराए से लगने लगे। डूब सी गई वो अपनी पुरानी यादों में, साहस था कि मधम पड़ने लगा। मैं शादी नहीं करना चाहती थी पर समाज और रिश्तेदारों की जोर जर्बदस्ती मुझे कमजोर कर रही थी। जिंदगी फिर एक ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर चुकी है......मेरी